Wednesday, 25 December 2013

भारत में महिलाओं कि स्थिति

“लाख दावो के बावजूद महिलायेँ न घर के भीतर महफूज है ,न घर के बाहर,न नौकरी में इन्हें समुचित हिस्सा मिल रहा है ,न काम के बदले पुरुषो के समान पगार। हर मामले में महिलाएँ अब भी समाज के हाशिये पर है। सांख्यकी मंत्रालय ने तमाम एजेंसियों से मिली रिपोर्टो के आधार पर देश की महिलाओ की जो तस्वीर पेश की है ,वह ऐसा ही जाहिर करती है। 
 आज नारी पहले की अपेक्षा कही अधिक् शिक्षित ,आधुनिक व्यक्तित्व संपन्न और आत्म निर्भर कही जाती है।  वैचारिक स्तर पर अधिक प्रबुद्ध और स्वतन्त्र आत्म चेता समझी जाती है। क्योंकि आज वह अपने निजत्व की पहचान के लिये अधिक जागरूक और अधिक प्रयासरत दिखाई देती है। किन्तु वास्तविक स्थिति और भी गंभीर है विडम्बना पूर्ण है। नारी के प्रति मध्ययुगीन सोंच में न तो कोई बदलाव आया है,और न ही उसके प्रति पौरुष के आतंकवादी दमन चक्र में कोई फर्क। बल्कि इस दकियानूसी कठमुल्लेपन का घेरा औरत के आसपास कुछ अधिक ही कस गया है। यदि हुआ है तो सिर्फ इतना ,कि नारी ने अपने को पहचान लिया है और वह इस पहचान को एक सुनिश्चित दिशा देकर ,एक सुनिश्चित स्थान पाने के लिए सतत संघर्षरत भी है। यदि इस उपलब्धि (?) को छोड़ दिया जाय ,तो नारी आज भी जन्म से मृत्यु तक नीति और धर्म के नाम पर दूसरे की इच्छाओ अथवा स्वार्थो के लिए बलिदान होने को उतनी ही मजबूर है जितना सदियों से रही है। क्योकि सामाजिक ढर्रे में बदलाव कभी इतना आसन नहीं होता और समाज की अंतर्चेतंना जागृत होने में जो अवधि लगेगी ,वही नारी की क्षमता और शक्ति की असली पहचान भी होगी। यह समर है नारी की स्वाधीनता और अधिकार के पुनर्प्राप्ति का इसमें अभी जाने कितनी दामिनियों का बलिदान बाकी है ,जाने कितनी तड़प और आँसुओं का बहना बाक़ी है और रक्त पिपासुओं के हाथो जाने कितनी वीरांगनाओ का जौहर बाकी है ,यह सारे उलझे सवालों का जखीरा अभी वक्त के हाथ में ही है !
जो लोग महिलाओं को पीछे रखने की साजिश में सदा आगे रहते है ,उन्हें शायद नहीं मालूम, कि रथ का एक पहिया यदि कमजोर होकर टूटेगा ,तो उस पर सवार रथी की अस्मिता भी खतरे में पड़ जाएगी। उनकी बेचारगी उस मूर्ख युवक सी है ,जो जिस डाल पर बैठा है उसी को काटे जा रहा है। अतीत गवाह है कि समाज और धर्म के कटघरे में हमेशा औरत को ही जवाबदेह बनाया जाता रहा है। पुरुषो ने अपनी संप्रभुता का लाभ उठा कर जितने भी नीति नियम और व्यवस्था परक आचार संहिता का निर्माण किया उसका एक भी अनुच्छेद वाक्य या शब्द ,उन्हें कभी भी सलाखों के पीछे नहीं ले जा सकता। चाहे वह नारी के प्रति कितने भी अपराध करे। उससे सवाल नहीं पूछे जा सकते। बहु विवाह, स्त्री का शारीरिक शोषण ,उसे यातना परक जीवन के लिए बाध्य करना ,उसको जीवित संपत्ति मान कर ,उस पर शासन करना , उसे सम्बंधविच्छेद के लिए मजबूर करना ,दहेज़ न मिलने पर उसे जीवित जला देना ,या घर से बेघर कर देना ,और गुजारा तक न देना ,उसे कोठे पर बेच देना पुत्री के रूप में जन्म लेने पर गला घोंट कर मार देना ,मर्जी से शादी करने पर उसे सरे आम काट कर फेंक देना ,उस पर दबाव न बना पाने की स्थिति में उस परतेज़ाब फेंक कर पूरी जिंदगी उसे तड़प तड़प कर जीने के लिए मजबूर कर देने जैसी ,विचित्र और बर्बर अत्याचारो की, अतीत से वर्तमान तक , अनवरत श्रंखला है। जिसमे सबसे तकलीफ देह वह आदिम समस्या है ,जो हवस के हब्शियों द्वारा स्त्री देह को सदियों से अपनी जागीर समझ कर दुर्दांत रूप से नोच खसोटा जाता रहा है। पिछले दस बीस सालो में तो बर्बरता की सीमा समाप्त हो गई। स्त्री चाहे वह नवजात हो बच्ची हो किशोरी हो ,वृद्धा हो वह केवल यौनिकता की मशीन बन कर रह गई है। और इन अत्याचारों को पुरुष अपने पौरुष का आभूषण समझता हुआ आज निर्लज्जता की हर सीमा लाँघ चुका है।
इंटरनेट व् अश्लील सिनेमा पोर्न साईट की खुला उपयोग हमारी भारतीय संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने पर तुल गया है। हम भूल गए है, कि भारत में सदियों से स्त्री को देवी का उच्च स्थान प्राप्त है, कन्या की हम पूजा करते है ,और उसी की मासूम देह को कुत्ते की तरह झंझोड़ते हुए हम डूब कर मर क्यों नहीं जाते। अपनी बच्ची पिता के घर में सुरक्षित नहीं होगी ,तो फिर कहाँ होगी ?बहन भाई के पास नहीं सुरक्षित होगी तो कहाँ जाएगी ?पत्नी का बलात्कार स्वयं पति अपने मित्रो के साथ मिल कर करता है तब पत्नी क्या करे। पौरुष का आतंकवादी अहंकार रक्त बीज की तरह असंख्यों रूपों और हर युग में स्त्री को पालतू पशु से अधिक का दर्जा कभी नहीं दे सकता ! ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवता …’ की स्मृति अवधारणा से ‘आज नारी ‘जब तक चाहा ,कुचला मसला और जब चाहा दुत्कार दिया ‘के स्तर से भी बहुत नीचे पहुँच चुकी है। स्त्री पुरुष की मानसिक आर्थिक ,शारीरिक अधीनता स्वीकार कर ले और स्वीकार करती रहे ,इसके लिए पुरुषो ने साम ,दाम, दंड ,भेद सभी तरह के हथकंडे अपनाये। विशेषत: नारी की स्वाभाविक सरल वृत्ति को आकर्षित कर बाँधने के लिए धर्म की ओट में अनेको कुचक्र रचे गए। प्राचीन काल से आज तक जितने भी व्रत उपवास अनेकानेक धार्मिक कर्म कांड और परंपराओं के नाम पर हितपक्षी रुढियाँ स्त्रियों के लिए प्रचलित और अनिवार्य की गई ,उनमे से एक भी नियम को मानने के लिए पुरुष बाध्य नहीं है। करवा चौथ ,गणेश पूजा ,भैया दूज ,यानी पति ,पुत्र,भाई के हितो की प्रार्थनायेँ महज इसलिए कि इनसे महिलाओ को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा मिलती है ,पैरो तले जमींन मिलती है।  इस सारे कुचक्र में महिलाएँ ही क्यों पिसती है। पुरुष इनसे सर्वथा दूर क्यों रहता है ? क्या पुरुष कल्याण कामना नहीं कर सकता ? उस बहन पुत्री ,माँ या पत्नी की जिससे उसे जन्म मिलता है ,निश्छल स्नेह मिलता है ,गृहस्थी का पूर्ण सुख मिलता है। पत्नी जो अपना सर्वस्व समर्पण करके घर को बच्चो को सजाती सवाँरती और बनाती है, यहाँ तक कि इस व्यूह में कोल्हू के बैल सी जुती रहकर अपने आत्म सम्मान की और आत्म व्यक्तित्व की स्वतन्त्र सत्ता तक भूल जाती है। कठिन से कठिन संघर्ष में भी पुरुष को हिम्मत बंधाती है। प्रेम की अमॄत संजीवनी पिला कर उसे नूतन प्राण शक्ति से सींच देती है और जब कभी अटूट निराशाओं से क्लांत होकर जीवन रथ का पहिया धसकने लगता है ,तो उसकी धुरी में भुजा डाल कर हार को जीत में बदल देती है।
पुरातन पंथी मानसिकता में उलझे अभिभावकों का एक बड़ा समुदाय पुत्र और पुत्री को बंटी हुई द्रष्टि से देखता है। ममता को धन और स्वार्थ की तुलापर तौलता है। उनका प्यार सिर्फ इसलिए विभाजित हो जाता है ,कि लड़की उन्हें स्वर्ग नहीं पहुचाँएगी, कमा कर नहीं खिलाएगी , जबकि उनकी समझ में पुत्र का किंचित पदाघात भी उन्हें मुक्ति का परम मार्ग दिखा देगा। संतानोत्पत्ति का प्राकृतिक नियम तो महज इसलिए है, कि वंश परम्परा समाप्त न हो और भूख प्यास , नीदं ,की ही तरह एक स्वाभाविक विशेष वृत्ति ममत्व की संतुष्टि हो सके।  पशु, पक्षी , प्राणी समुदाय सभी इस नियम को मानते है ,वे ममता के साथ स्वार्थ कभी नहीं जोड़ते ,लेकिन इसका यह भी तात्पर्य कदापि नहीं ,कि संतान सिर्फ अधिकार भोग कर ,स्वेछाचारिता के लिए मुक्त हो जाएगी। यदि अभिभावक के द्रष्टि कोण की आलोचना की जा सकती है ,तो संतान को भी माँ बाप के प्रति कर्तव्यच्युत होने पर माफ़ नहीं किया जा सकता।उचित तो यही होगा कि वह पोंगा पंथी सामाजिक धार्मिक मान्यता ही समाप्त कर दी जाय ,जिसके अंतर्गत पुत्री के घर का पानी भी नहीं पिया जाता। क्यों न दोनो को सेवा पोषण ,अंतिम संस्कार का सामान अवसर मिले। दोनों एक ही रक्त के अंश है ,और इस रुढ मान्यता के टूटते ही ,पुत्र व् पुत्री के मध्य उपजी विभाजक रेखा स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। लेकिन जिस देश में दस लाख लडकियाँ सिर्फ इस जुर्म के कारण मृत्यु के मुख में झोंक दी जाती हो ,कि उन्होने लड़की के रूप में जन्म लिया है ,उस अंधे देश में उजाले की किरण कब दिखाई देगी ,कुछ कहा नहीं जा सकता !
पौरुष का सम्मान और उसके चरणों में सर रख देने की इच्छा स्त्री के मन में होती है किन्तु तब जब पौरुष भी एक गरिमामय तेजस्वी जीवन का उदहारण हो। सीता के मन की कसौटी पर खरा उतरने वाला पुरुष वही हो सकता है जिसने राम का जीवन जिया हो। स्त्री को नाना प्रकार से परम्पराओं नैतिकताओ ,के पाश में बाँधने वाला पुरुष समाज स्वयं अपने गिरेबान में झांक कर देखे ,कि वह कितना प्रतिबद्ध है ,उन सिद्धान्तो के प्रति जो उसने नारी के लिए बनायें। स्त्री सदा साफ सच्चे और ईमानदार चरित्र को ही मन से समर्पित होती है। स्वेच्छा से उसका दासत्व ग्रहण कर सुख मानती है , बात बात पर रंग बदलने वाले दो मुहों के लिये ,दरिंदगी को ,पशुता को पौरुष का प्रतीक मानकर स्त्री को पांव की जूती मानने वाले के लिए ,उसके ह्रदय में अपरिमित धिक्कार ही मिल सकता है। यह बात अलग है कि आर्थिक परवशता प्रतिकूल परिस्थितियो और रुढिगत मान्यताओ के कारण नारी अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट आवाज न दे पाती हो। लेकिन  जब भी उसे मौका मिला है ,अपने हक़ में रौशनी की एक भी किरण नजर आई है ,वह अपनी पहचान के लिए ,अपने स्तर पर लड़ी अवश्य है ,और यह बता दिया है कि ,इतिहास सिर्फ पुरुष ही नही स्त्रियाँ भी बना सकती है और बिगाड़ भी सकती है। वक्त को अपनी अदम्य इच्छा शक्ति द्वारा परिवर्तन के मोड़ पर खड़ा कर सकती है। दबी कुचली अनपढ नारी के भीतर भी अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए उस बीज जैसी ही प्रबल जिजीविषा हो सकती है ,जो तनिक अनुकूलता हाथ लगते ही धरती का सीना फोड़ कर अंकुर के रूप में उभर आता है और एक दिन विशाल वृक्ष बन कर जीने का अधिकार हासिल ही कर लेता है। 

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