Friday, 22 November 2013

कितना शर्मनाक है ये

 तहलका के संपादक तरुण तेजपाल के ख़िलाफ़ यौन दुर्व्यवहार के मामले में एफ़आईआर दर्ज तो हो गई है पर इस  घटना ने पुरे मीडिया जगत में नई बहस  को  जन्म दिया है की देश के चौथे स्तम्भ मने जाने  वाले मीडिया में भी इस तरह कि घटना में शामिल होने से अब कोई भी ऐसा स्तम्भ नहीं रहा जो मजबूत हो। पिछले कुछ महीनों में मीडिया जगत में यौन दुर्व्यवहार  के कई मामले सामने आए जैसे दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो में काम कर रही महिलाकर्मियों की शिकायत, सन टीवी की एक महिलाकर्मी एस अकिला का मामला और अब तहलका पत्रिका के संपादक  के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की शिकायत। 
वर्ष 1997 में राजस्थान सरकार के एक कल्याणकारी कार्यक्रम में काम करनेवाली भंवरी देवी ने जब बाल विवाह का विरोध किया तो गूजर समुदाय ने उनकी आवाज़ दबाने के लिए उनका सामूहिक बलात्कार किया था. इस मामले पर फैसला सुनाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विभागों और उपक्रमों में यौन उत्पीड़न के अपराधों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे.
कोर्ट ने कहा, “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नाते हमें महिलाओं के खिलाफ हिंसा से लड़ना होगा, घर और बाहर, सभी जगह उनकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए संसद को कानून में ज़रूरी बदलाव लाने चाहिएं.”
 सुप्रीम कोर्ट ने भारत की सभी राज्य सरकारों को काम के स्थान पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए जारी किए गए निर्देशों को लागू करने और उसके लिए उचित कानूनी तंत्र बनाने को कहा है. 15 वर्ष पहले यौन उत्पीड़न के एक मामले पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों को रोकने और ऐसी शिकायतों की सुनवाई के लिए कुछ निर्देश बनाए थे जिन्हें विशाखा निर्देश के नाम से जाना जाता है. 

विशाखा निर्देश

  • हर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने और ऐसे मामलों की सुनवाई का प्रबंध करने की ज़िम्मेदारी मालिक और अन्य ज़िम्मेदार या वरिष्ठ लोगों की हो.
  • निजी कंपनियों के मालिकों को अपने संस्थानों में यौन शोषण पर रोक के विशेष आदेश दें.
  • यौन उत्पीड़न की सुनवाई के दौरान पीड़ित या चश्मदीद के खिलाफ पक्षपात या किसी भी तरह का अत्याचार ना हो.
  • इस सबके लिए एक महिला की अध्यक्षता में एक शिकायत समिति बने जिसके सदस्यों में महिला संगठनों के प्रतिनिधि भी हों.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश को 16  साल बीत चुके हैं. मगर भारत की ना जाने कितनी संस्था ऐसी हैं जहाँ अभी तक इस समिति का गठन नहीं किया है.

यौन दुर्व्यवहार के मामलों के आंकड़ों

 देल्ही में 16 दिसंबर को हुए शर्मनाक घटनाक्रम के बाद और जस्टिस वर्मा की शिफारिशों के बाद अबतक बलात्कार के मामलों में कमी नहीं हुई बल्कि 30 % की वृद्धि दर्ज की गई है।
 सभी अपराधों के बारे में आंकडे जुटाने और जारी करने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामलों में आंकड़े साल 1971 के बाद से ही उपलब्ध हैं. जहाँ 1971 में इस तरह के 2,487 मामले दर्ज किए गए थे वहीं 2011 में दर्ज किए गए मामलों की संख्या 24,206 थी यानी 873% से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी!
2001 से लेकर 2010 तक दर्ज किए गए बलात्कार के मामलों में मात्र 36,000 अभियुक्तों के खिलाफ ही अपराध साबित हो सके. ख़ास बात ये भी है कि अपराधों का मामला सिर्फ बलात्कार तक सीमित नहीं है.भारत में पिछले 40 वर्षों में बलात्कार की घटनाओं में क़रीब 800 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है.
राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी किए आंकड़ों के मुताबिक़ अन्य सभी अपराधों, जैसे हत्या, डकैती, अपहरण और दंगों के मुक़ाबले बलात्कार की घटनाओं में सबसे ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई है.
महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के जो आंकड़े 2011 में जारी किए गए हैं, उनमे अपहरण की घटनाएँ 19.4% बढ़ी हैं जबकि 2010 की तुलना में 2011 में महिलाओं की तस्करी के मामलों में पूरे 122% का इज़ाफा दर्ज किया गया था.
 शायद यही वजह है कि ट्रस्ट लॉ नामक थॉमसन रायटर्स की संस्था ने जी-20 देशों के समूह में भारत को महिलाओं के रहने के लिए सबसे बदतर जगह बताया है.

शर्मनाक  परीक्षण

 बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं को लगातार कई तरह की फ़ोरेंसिक जांच से गुज़रना पड़ता है जिसमें दो उंगलियों से किया जानेवाला परीक्षण भी शामिल है जिसके ज़रिए ये पता लगाया जाता है कि बलात्कार हुआ है या नहीं या फिर यौन संबंध बनाया गया है या नहीं। क़ानून के जानकारों का कहना है कि उंगली परीक्षण बलात्कार की पुष्टि करने का एकमात्र तरीक़ा नहीं है और अगर इसे हटा भी दिया जाता है तो जांच में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। दो उंगलियों से परीक्षण बलात्कार की पुष्टि की कोई अहम शर्त नहीं है. बलात्कार के मामलों में पीड़ित का बयान सबसे महत्वपूर्ण है.इसके अलावा मेडिकल सबूत तथा अन्य साक्ष्य ज़्यादा अहमियत रखते हैं.
बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं और बच्चों को और अधिक मानसिक प्रताड़ना से बचाने के लिए योजना आयोग की एक उच्च स्तरीय समिति ने सुझाव दिया है कि बलात्कार और यौन संबंध की पुष्टि के लिए किया जानेवाला उंगली परीक्षण ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. समिति ने ये भी कहा है कि यौन उत्पीड़न के शिकार हुए बच्चे अक़्सर ये बताने में सक्षम नहीं होते कि उनके साथ किस तरह का यौन दुर्व्यवहार हुआ है, इसलिए ऐसे मामलों में क़ानून को बाल मनोविश्लेषक और चिकित्सक जैसे विशेषज्ञों को बच्चों की तरफ़ से पेश होने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि उत्पीड़न की सही स्थिति का पता चल सके। सामाजिक कार्यकर्ता लंबे अरसे से इस परीक्षण को अपमानजनक बताते हुए ख़त्म करने की मांग कर रहे थे. उनका कहना है कि बलात्कार की पुष्टि के लिए किया जानेवाला ये एक अवैज्ञानिक और अपमानजनक तरीक़ा है.
इन्हीं मांगों पर ग़ौर करते हुए योजना आयोग की समिति ने यौन उत्पीड़न के शिकार हुए लोगों की सुरक्षा के लिए ये सुझाव भी दिया है कि ऐसे पीड़ितों को पुलिस, मजिस्ट्रेट, अदालत आदि के सामने बार-बार बयान देने के लिए भी बाध्य नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे पीड़ित व्यक्ति मानसिक रूप से और ज़्यादा परेशान होता है.





Wednesday, 20 November 2013

आतंकी संगठनों के निशाने पे मोदी

मोदी ने ऐसा क्या कर दिया है की सभी आतंकी संगठनों के निशाने पे आगए है. ये समझ पाना बहुत मुश्किल लग रहा है। 
बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेन्द्र मोदी पर हमला करवाने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अपने खास गुर्गे दाऊद इब्राहिम की मदद मांगी है. भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने यह सूचना एकत्रित की है. गुप्तचर एजेंसियों के एक सीक्रेट नोट में मोदी पर खतरे का जिक्र है. उन्हें कुछ और आतंकवादी संगठनों से खतरा है.
गुप्तचर एजेंसियों की ताजा जानकारी के मुताबिक आईएसआई नरेन्द्र मोदी पर हमला करवाने के लिए अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम की मदद ले रहा है. गुप्तचर विभाग के नोट में मोदी पर खतरे का जिक्र है और वह भी आईएसआई-दाऊद गठजोड़ से. इसमें कहा गया है कि आईएसआई के सीनियर ऑफिसरों से मीटिंग में दाऊद इब्राहिम को भारत में अपनी गतिविधियां फिर शुरू करने को कहा गया है और नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाने को भी कहा गया है.
सूत्रों ने बताया कि यह नोट नरेन्द्र मोदी पर पटना रैली के दौरान हुए हमले के बाद तैयार हुआ है. पटना बम ब्लास्ट में 8 लोग मारे गए थे. समझा जाता है कि उस हमले में भारतीय आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का हाथ है.
खुफिया नोट में कहा गया है कि नरेन्द्र मोदी को सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी खतरा है. पाकिस्तान की आईएसआई के अलावा सऊदी अरब के आतंकी संगठन भी नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाने की ताक में हैं. नोट में कहा गया है कि सऊदी अरब में बैठे आतंकी संगठन मोदी पर हमला करने की योजना बना रहे हैं.
गुप्तचर एजेंसियों को खबर मिली है कि एक आतंकी शाहिद उर्फ बिलाल ने सऊदी अरब में बैठे अपने साथी को कहा है कि मोदी पर हमला करवाने के लिए आत्मघाती हमला रिमोट कंट्रोल के जरिये बम हमले से कहीं बेहतर रहेगा.
नोट में एक और सनसनीखेज खुलासा है कि भारतीय सुरक्षा अधिकारियों में से कुछ आक्रामक हो सकते हैं और वे मोदी पर हमला करवाने के लिए आतंकी संगठनों की मदद ले सकते हैं. नोट में यह भी कहा गया है कि लश्कर-ए-तय्यबा ने कुछ सुरक्षा अधिकारियों की बहाली करवाई है ताकि उन तक आसानी से पहुंच हो सके.
केन्द्रीय गुप्तचर एजेंसियों को सूचना मिली है कि प्रतिबंधित संगठन सिमी अन्य आतंकी गिरोहों से मिलकर मोदी पर हमले की योजना बना रहा है. सिमी के सदस्य एलईटी, हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी और जैश-ए-मुहम्मद के संपर्क में हैं.
नोट में कहा गया है कि हाल ही में गिरफ्तार सिमी के कार्यकर्ताओं ने बताया है कि गिरोह ट्रेनिंग कैंप और एक आत्मघाती दस्ता जिसे शाहीन फोर्स का नाम दिया गया है, चला रहा है. उनके निशाने पर कई नेता हैं जिनमें मोदी भी हैं. गुप्तचर विभाग के नोट में उन तरीकों के बारे में खुलासा किया गया है जो हमला करने के लिए अपनाए जा सकते हैं. नोट में यह भी कहा गया है कि मोदी को माओवादियों से भी खतरा है.
मोदी के काफिले पर लॉंचरों से हमला और बमों से लदे वाहनों को टकराने जैसे कई विकल्प इसमें बताए गए हैं. आत्मघाती हमला तो एक और तरीका है जिसका आतंकी संगठन इस्तेमाल कर सकते हैं. नोट में कहा गया है कि मोदी को न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी खतरा है.

Tuesday, 12 November 2013

देश कि शिक्षा वयवस्था

हमारे  देश कि  शिक्षा वयवस्था  ही आज हमारे विकास में अवरोध बन  गई है।  प्राचीन समय से अगर देश में   शिक्षा के  स्तर कि बात कि जाए तो ये ज्ञात  होता है कि भारतीये  शिक्षा का स्तर हमेशा ही पुरे विश्व के लिया प्रेरणा श्रोत था पर आज स्तिथि कुछ और ही है आज प्रेरणा तो दूर है भारत को  शिक्षा के छेत्र में निम्न स्तर  में रखा जाता है।  आज शीर्ष 200  शिक्षण संस्थानो में भारत का एक भी संस्थान शामिल नहीं है। द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है. हमारे देश में नाम रखने वाले आई आई टी का स्थान  200 में नहीं है कितने दुःख कि बात है कि कभी विश्व गुरु कहे जाने  वाले देश के शिक्षण संसथान का ये हाल है।
वर्त्तमान में देश में प्रचलित शिक्षा  वयस्था को हम किसे भी रूप में ये नहीं कह सकते कि ये भारतयी शिक्षा पद्धति है और हक़ीक़त भी यही है के ये  पद्धति तो अंग्रेजों  द्वारा थोपी गई क्लर्क बनाने वाली पद्धति है। अंग्रेजों ने भारत में अपना काम  सुचारु रूप से चलने के लिये भारत के युवा को अंग्रजी भाषा में शिक्षित  किया इसके पीछे कारण था कि उनको अंग्रेजी जानने वाले भारतीये लोग चाहिये थे।  इस काम में वो सफल भी थे और आज हम इस काम में असफल हैं क्योंकि हमे जिस ज्ञान कि जरुरत थी वो हम नहीं अपना पाए।  1947  में देश कि आजादी के बाद हमे अपनी शिक्षा और अपनी आर्थिक नीति कि जरुरत थी पर हमने  अंग्रेजों  कि नीति अपना ली और उसी का दुष्परिणाम हम आज भोग रहे हैं।
हमारे देश में युवा शिक्षित तो हो जाता है पर ज्ञानी नहीं हो पता है बचपन से ही हमे ऐसे बातें बताई जाती है जिनका कोई व्याहारिक महत्व नहीं होता है पहली से ले कर दसवीं क्लास तक हमे जो कुछ भी पढ़ाया जाता है वो अगर कायदे से पढ़ाया जाऐ  तो चार या पांच सालों में पढ़ाया जा सकता है।  इसके अतरिक्त हमे ऐसे ऐसे तथ्य बताऐ जाते है जो हमारी गुलामी वाली मानसिकता को प्रदर्शित करती है और सच भी नहीं होती है। जैसे हमे बताया जाता है की  भारत खोज वास्को डी गामा ने की थी अब इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है कि भारत मे जन्मे बच्चे को आप ये बताओ कि  आप के देश कि खोज किसी विदेशी ने कि ही तो उसके दिमाग में क्या विचार बैठेगा, बच्चों को बताया जाता है कि कालीदास  इज़ शेएक्सपीयर ऑफ़ इंडिया जब कि हक़ीक़त तो ये  है कि कालीदास शेएक्सपीयर   से 1000  साल पहले अपनी रचना कर चुके थे और ज्ञान के मामले में शेएक्सपीयर से काफी ज्यादा आगे थे। शिकंदर महान था जबकि उसके द्वारा जीता गया इलाक़ा चन्द्रगुप्त मौर्या के इलाके का आधा भी नहीं था।  कभी ये बात नहीं बताई जाती है की प्राचीन समय में भू मध्य रेखा भारत के उज्जैन से गुजरती थी और चरक और शुश्रुत जैसे डॉक्टर हमारे देश में थे, नाटकों की पहली  किताब नाट्यशास्त्र भारत में लिखी गई थी।  भारत के दार्शनिक बहुत महान थे, भारत में चार धर्मों का जन्म हुआ है।  हमे हमारे ऊपर राज करने वाले  अंग्रेजों  के नाम लार्ड शब्द के साथ पढ़ाया जाता है लार्ड विलयम बैंटिक,  लार्ड फलने , लार्ड ये , लार्ड वो।
हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का हाल इतना ख़राब है पर देश में इंजीनियरिंग और एम् बी ऐ कॉलेजेस कि संख्या इतनी तेजी से बढ़ी कि गुणवत्ता घाट गई।  आज युवा इंजीनियरिंग और एम् बी ऐ कॉलेजेस से पढ़ के जब नौकरी करने के लिए जाता है तो उसे कंपनी फिर से ट्रेनिंग देती  हैं ये उनके स्तर को दर्शाता है।  मेडिकल कॉलेज कि तो देश में कमी बनी हुई है, हमसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश चीन है और हमारे देश के  बच्चे वहाँ मेडिकल के अध्ययन करने के लिये जाते हैं।  आजादी के इतने सालों के बाद भी देश में युवा साक्षरता दर 82 % है जबकि चीन में ये 99. 4 % है जबकि चीन हमसे ज्यादा जनसंख्या  वाला देश है।
पाँच  तथ्य जो हमारे देश की शिक्षा वयवस्था कि हक़ीक़त को उजागर करता है

तथ्य 1: स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3 : राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है. आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पाते. 
तथ्य 4 : भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 5 : आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.

मानविकी का है बुरा हाल
 भारत में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. आज़ादी के पहले 50 सालों में देश में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला था जबकि पिछले 16 सालों में ही 69 नए निजी विश्वविद्यालय खुल गए हैं. इन विश्वविद्यालयों में आमतौर पर पेशेवर कहे जाने वाले प्रबंधन, इंजीनियरिंग, मेडिकल जैसे विषय पढ़ाए जाते हैं ताकि छात्र वहां से डिग्री लेकर बाज़ार में नौकरी तलाश सकें. कहने को तो इन विश्वविद्यालयों में ह्यूमैनिटी यानी मानविकी और सोशल साइंस यानी समाज विज्ञान के विषय भी पढ़ाए जाते हैं लेकिन उन विषयों में छात्रों की संख्या देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन शिक्षण संस्थानों के लिए ऐसे विषयों की क्या अहमियत है. खुद को भारत का सबसे बड़ा निजी विश्वविद्यालय बताने वाली पंजाब की लवली प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले 30 हज़ार छात्रों में से केवल 350 छात्र मानविकी के विषयों की पढ़ाई करते हैं.
वहीं ग्रेटर नोएडा में मौजूद शारदा यूनिवर्सिटी में मानविकी और समाज विज्ञान के विषय पढ़ाए ही नहीं जाते.
स्वाभाविक है कि मोटी फीस के दम पर चलने वाले इन निजी विश्वविद्यालयों में भाषा, साहित्य, दर्शन जैसे मानविकी के विषयों और इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र जैसे समाज विज्ञान के विषयों पर ज़ोर नहीं रहता क्योंकि इन्हें बाज़ार की ज़रूरतों के अनुकूल विषय नहीं माना जाता. इसलिए ज़्यादा पैसे देकर मजबूरी में ही छात्र वहां पढ़ने जाते हैं. निजी क्षेत्र में छात्रों की संख्या के आधार पर बड़ा शिक्षण समूह माने जाने वाले एमिटी ग्रुप के नोएडा कैंपस में सोशल साइंस के छात्रों ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में दाखिला नहीं मिलने की वजह से ही उन्हें वहां एडमिशन लेना पड़ा. इन छात्रों का मानना है कि डीयू और जेएनयू जैसे सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई को लेकर जितना खुलापन है और जितना कुछ सीखने को मिलता है, उतना निजी विश्वविद्यालयों के बंद से माहौल में नहीं मिलता. एमिटी के नोएडा कैंपस की वस्तुस्थिति कुछ और ही है. वहां समाज विज्ञान के सभी विषयों में कुल छात्रों की संख्या मात्र 209 है और इतिहास जैसा महत्वपूर्ण विषय वहां पढ़ाया ही नहीं जाता. हां मानविकी के फ़ाइन आर्ट, म्यूज़िक, विदेशी भाषाएं, अंग्रेज़ी जैसे विषय वहां काफ़ी डिमांड में नज़र आए. लवली प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी में मानविकी की पढ़ाई साल 2010 में शुरू हुई जबकि समाज विज्ञान के विषय वहां अब भी नहीं पढ़ाए जाते.

'आर्ट यानी कमज़ोर छात्र'

अधिकतर लोगों कि नज़र में   लिबरल आर्ट में वही लोग दाखिला लेते हैं जो पढ़ाई में कमज़ोर होते हैं और उनके लिए नौकरी के बहुत कम विकल्प मौजूद होते हैं. आम राय यही है कि मानविकी में वही लोग आते हैं जिन्हें विज्ञान के कॉलेजों में या तो दाखिला नहीं मिल पाया है या उनके माता पिता बहुत अमीर हैं, इसलिए उन्हें नौकरी की कोई चिंता नहीं है. आईटी कंपनियाँ जिस तरह इंजीनियरों की थोक के भाव भर्ती करती हैं उसके ठीक विपरीत मानविकी के स्नातक के लिए सिर्फ़ सरकारी विभागों या शिक्षा के क्षेत्र में ही नौकरियाँ उपलब्ध रहती हैं. भारत में लिबरल ऑर्ट्स की शिक्षा के न फलफूल पाने का एक और कारण है इसकी शिक्षा का स्तर ।  
 "निजी विश्वविद्यालयों को लेकर यूजीसी जो एक नया रेगुलेशन बना रहा है उसमें इस चिंता को बहुत अहमियत दी गई है और निजी विश्वविद्यालयों से ये उम्मीद रखी गई है कि वो केवल पेशेवर कोर्स ऑफ़र न करें बल्कि मानविकी और समाज विज्ञान के विषय भी पढ़ाएं जिनसे व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है." देश के नीति निर्माता सिद्धांत रूप से ये स्वीकार तो करते हैं कि निजी विश्वविद्यालयों में मानविकी के विषयों की स्थिति चिंताजनक है लेकिन हक़ीक़त ये है कि निजी स्कूलों की तरह निजी विश्वविद्यालयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
एक समय था कि अपने बच्चों को लोग सरकारी स्कूलों में भेजते थे क्योंकि वहां ईमानदारी से शिक्षा दी जाती थी, लेकिन अब इन सरकारी स्कूलों में वही लोग अपने बच्चों को भेजते हैं जो प्राइवेट स्कूलों की भारी फीस नहीं भर सकते.
 जिस तरह शिक्षा प्राइवेट हाथों में जाती जा रही है, वो समय दूर नहीं जब उच्च शिक्षा व्यवस्था पर भी निजी हाथों का वर्चस्व हो जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो मानविकी और समाज विज्ञान जैसे विषयों का भविष्य क्या होगा - ये एक बहुत बड़ा सवाल है और गंभीर चिंतन की मांग करता है.


"ट्रेनिंग से मैं एक इंजीनियर हूँ जिसने एमबीए भी किया है. लेकिन काश मुझे लिबरल आर्ट्स का भी अनुभव मिला होता. अगर ऐसा हो पाता तो मैं शायद बेहतर इंसान और बेहतर लीडर होता मुझे याद है स्कूल में मेरे इतिहास और भूगोल के शिक्षक पाठ्यपुस्तक से सीधे पढ़ाते थे और लेक्चर के बाद पाठ के अंत में दिए प्रश्नों के उत्तर लिखवा देते थे. मेरे इतिहास में अच्छे नंबर ज़रूर आए थे लेकिन इसके पीछे शिक्षक की भूमिका कम और मेरी विषय में अतिरिक्त रुचि ज़्यादा ज़िम्मेदार थी."
केवी कामथ, पूर्व प्रमुख, आईसीआईसीआई बैंक
भारत के अधिकतर कला छात्रों के लिए यही कहानी कॉलेजों में भी दोहराई जाती है. हाँ कुछ गिने चुने कॉलेज ज़रूर अपवाद हैं जहाँ के शिक्षक अतिरिक्त जानकारी पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं. अगर आपको इन कॉलेजों में दाखिला नहीं मिल पाता तो ले-दे कर आपके पास यही विकल्प बचता है कि किसी साधारण कॉलेज में दाखिला ले कर अपने पसंद का विषय पढ़ा जाए या फिऱ किसी मामूली इंजीनियरिंग कालेज का रुख किया जाए.

एक साधारण इंजीनियर के लिए एक साधारण समाजशास्त्री या राजनीति शास्त्र के छात्र से बेहतर नौकरी के अवसर मौजूद रहते हैं. कुछ जानेमाने कॉलेजों जैसे सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज, एलएसआर, प्रेसिडेंसी या लॉयोला कॉलेज की बात छोड़ दी जाए, तो बीए में दाखिला लेने में छात्रों की उतनी ही रुचि रहती है जितनी शायद सोमालिया की नागरिकता लेने में.भारत में हावर्ड जैसे उच्च कोटि के शिक्षण संस्थानों की कमी महसूस होती रही है. कुछ वर्षों पहले नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ कॉलेजेज़ एंड एम्पलॉयर्स ने नियोक्ताओं के बीच एक सर्वेक्षण किया था जिसमें ये बात निकल कर सामने आई कि वो डिग्री से अधिक योग्यता को तवज्जो देते हैं।
निपुणता तो सीखने से आती है लेकिन अच्छे विचार प्रोफ़ेशनल डिग्री भर से नहीं लाए जा सकते.
आर्ट्स के अंदर भी शायद अर्थशास्त्र की वक़त किसी भी भाषा के साहित्य से अधिक है. साहित्य की पढ़ाई के खिलाफ़ अक्सर ये तर्क दिया जाता है कि इसे तो आप अपने खाली समय में भी पढ़ सकते हैं. लेकिन यह सवाल उभरता है कि हम में से कितने लोग अपने खाली समय में खालिस साहित्य पढ़ते हैं?
सिर्फ़ साहित्य ही लिबरल आर्ट्स की श्रेणी में नहीं आता. इस श्रेणी में इतिहास, दर्शन शास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और राजनीतिशास्त्र सभी को रखा जा सकता है. अमरीका में तो संगीत, कला और यहाँ तक कि प्राकृतिक विज्ञान (भौतिकी, रसायनशास्त्र और जीव विज्ञान) भी इसी श्रेणी में रखे जाते हैं. आम मध्यम वर्ग तबके में ये एक आम सोच है कि अगर आप विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते तो उससे थोड़ा कम बेहतर विकल्प कॉमर्स है. सच्चाई ये है कि कॉमर्स की डिग्री, ह्यूमेनिटीज़ की डिग्री से न तो बेहतर है और न बेकार. ये भी एक भ्रांति है कि कॉमर्स की पढ़ाई से एमबीए में मदद मिलती है. लेकिन ये तथ्य दिलचस्प हैं कि आईआईएम अहमदाबाद के 2012 के बैच में कॉमर्स के 12 फ़ीसदी छात्रों की तुलना में सिर्फ़ 4 फ़ीसदी छात्र आर्ट्स पृष्ठभूमि के थे और पूरे बैच के 75 फ़ीसदी छात्र इंजीनियरिंग करके आए थे.

'मौलिकता की कमी'

इस समय भारत में ऊँचे स्तर के लिबरल आर्ट्स कॉलेज खोले जाने की ज़रूरत है. आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थानों के लिए ही ‘उत्कृष्ट संस्थान’ विशेषण इस्तेमाल किया जाता है लेकिन ये हारवर्ड, वॉर्टन या स्टैनफ़र्ड की तरह मल्टी डिसिपलिनरी संस्थान नहीं हैं जहाँ एक परिसर के अंदर ही इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, मेडिसिन और लिबरल आर्ट्स की शिक्षा दी जाती है.
अगर आप नौकरी की संभावनाओं को एक तरफ़ कर दें और इंजीनियरों और डॉक्टरों के सामाजिक पक्ष पर ही ध्यान दें तो आप पाएंगे कि इनमें से अधिकतर में   रचनात्मकता और मौलिकता का आभाव है।
ये लोग आईटी आउटसोर्सिंग कंपनी के एक अच्छे कर्मचारी तो हो सकते हैं लेकिन ये मामूली कम्यूनिकेटर, विचारक या दार्शनिक साबित नहीं  होते हैं. भारत में जहां अक्सर दुनिया में सबसे अधिक तकनीकी स्नातक होने की शेख़ी बघारी जाती है, हंगरी जैसे छोटे देश से कम नोबेल पुरस्कार आए हैं.
मज़े की बात ये है कि हंगरी की ख्याति लेखकों और संगीतकारों की वजह से ज़्यादा है न कि इसके डॉक्टरों या इंजीनियरों की वजह से. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार तो यहाँ तक मानते हैं कि भारतीय समाज में लिबरल आर्ट्स पर ज़ोर न दिए जाने के कारण ही भारतीय समाज में असहिष्णुता व्याप्त है.
कोई कविता पढ़ना चाहे या माइक्रोस्कोप से कोई सूक्ष्म चीज़ देखना चाहे या किसी की रुचि अमाल अल्लाना के किसी नाटक को देखने में हो या कोई मध्ययुगीन पांडुलिपी में छिपे किसी रहस्य को ढ़ूँढ़ने में दिलचस्पी रखता हो ये सभी गतिविधियाँ इंसान को स्वतंत्र रूप से सोचने और फ़ैसले लेने में मदद करती हैं. इनसे मनुष्य का दायरा बढता है, वो नए परिपेक्ष्य की खोज करते हैं और अपने दृष्टिकोण को और मज़बूत बनाने के लिए नए साधनों को ईजाद करते हैं.
उदार शिक्षा का अर्थ है अपने आप को पूरी तरह से बदल डालना. लिबरल आर्ट्स की शिक्षा मस्तिष्क को न सिर्फ़ पूरी तरह से आज़ाद करती है बल्कि उन बिंदुओं को जोड़ने में मदद करती है जिनकी तरफ़ पहले आपका ध्यान ही नहीं गया था. इसकी वजह से ही इंसान किसी विषय पर अपनी सोच बना पाता है.
अल्बर्ट आइंसटीन ने सही कहा है, ''कल्पनाशीलता ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरी है. ज्ञान संकुचित है, कल्पनाशीलता कालजयी है.''

शोध बना खिलवाड़ पैसे दो, डॉक्टरेट लो

उच्च शिक्षा में रिसर्च या शोध की भूमिका सबसे अहम होती है. शोध के स्तर और उसके नतीजों से ही किसी विश्वविद्यालय की पहचान बनती है और छात्र-शिक्षक उसकी ओर आकर्षित होते हैं.
शोध के महत्व पर यूजीसी के पूर्व चेयरमैन और शिक्षाविद् प्रोफ़ेसर यशपाल कहते हैं, "जिन शिक्षा संस्थानों में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वो न तो शिक्षा का भला कर पाते हैं और न समाज का."
 भारत में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.8 फीसदी शोध पर खर्च किया जाता है जो कि चीन और कोरिया से भी काफ़ी कम है और इसे कम से कम दो फ़ीसदी होना चाहिए. ये भी एक तथ्य है कि दुनिया के जितने भी बड़े उच्च शिक्षा के ऑक्सफ़ोर्ड, केंब्रिज, हार्वर्ड जैसे केंद्र हैं वो अपने शोध के ऊंचे स्तर और शोधार्थियों की गुणवत्ता की वजह से ही जाने जाते हैं.
अमर्त्य सेन (हार्वर्ड विश्वविद्यालय), जगदीश भगवती (केंब्रिज विश्वविद्यालय), हरगोविंद खुराना (लिवरपूल विश्वविद्यालय) ने अपने शोध की वजह से न केवल भारत का नाम रोशन किया बल्कि जिन विश्वविद्यालयों से ये जुड़े, उनकी प्रतिष्ठा को भी इन्होंने आगे बढ़ाया।
 शोध का भारतीय समाज में बहुत मान नहीं है.  भारत में वस्तुस्थिति यह है कि पहले के मुकाबले यहां शोध के क्षेत्र में सुविधाएं बढ़ी हैं. विश्वविद्यालयों में प्रयोगशालाओं का स्तर सुधरा है, इंटरनेट की सुविधा आज शोधार्थियों को आसानी से उपलब्ध है, आर्थिक रूप से भी सरकार शोध करनेवालों को पर्याप्त मदद देती है. विश्वविद्यालय परिसर में इंटरनेट की अच्छी सुविधा है, लाइब्रेरी में हर तरह की किताब मिल जाती है और दुनिया भर के जर्नल वहां मंगाए जाते हैं. लेकिन भारत के कई बड़े विश्वविद्यालयों में शोध के लिए ज़रूरी अन्वेषणपरक इस बुनियादी प्रवृत्ति का अभाव-सा नज़र आता है और अन्वेषण  को बढ़ावा देनेवाला कोई काम नहीं  किया जाता है। 
कभी भारत में शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का केंद्र रहे बिहार के पटना विश्वविद्यालय में आज शोध छात्र और शिक्षक दोनों के लिए खिलवाड़ बन गया है. शिक्षक जहां पैसे लेकर शोधकार्य करवा रहे हैं, वहीं छात्र बिना किसी योग्यता के डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर रहे हैं. ये स्थिति केवल पटना विश्वविद्यालय की ही नहीं है. ऐसे तमाम विश्वविद्यालय हैं जहां पीएचडी थीसिस तो थोक के भाव से जमा हो रहे हैं, लेकिन उनमें लिखी सामग्री से विषय का कोई भला नहीं हो रहा, वो केवल यहां-वहां से, इंटरनेट से चुराई सामग्री का संकलन भर होता है जिसे न तो छात्र गंभीरता से लेते हैं और न ही उनके शोध निर्देशक.
हालांकि इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है. शोध की खराब हालत के लिए केवल शिक्षकों का रवैय्या ही ज़िम्मेदार हो ऐसा ही नहीं है. कई बार शोधार्थी भी शोधकार्य के दौरान शिक्षकों को नाकों चने चबवा देते हैं.
छात्र कई-कई महीने शिक्षक से नहीं मिलते, पीएचडी में दाखिला लेकर विश्वविद्यालय की तमाम सुविधाएं ले लेते हैं और साथ ही छुप-छुपाकर नौकरी करने लगते हैं.
यानी कुछ हद तक दोष दोनों तरफ से है. कहीं छात्र शिक्षक के हाथों परेशान हो रहा है तो कहीं शिक्षक छात्र के गैर ज़िम्मेदाराना रवैये से कुपित हैं और इन दोनों ही स्थितियों में असल नुक़सान हो रहा है शोध का.
हालत ये है कि शोध के लगातार गिरते स्तर की वजह से भारत के क्लासिक विश्वविद्यालय कहलाने वाले जेएनयू, एएमयू, बीएचयू और इलाहाबाद जैसे विश्वविद्यालयों की छवि दिन ब दिन खराब होती जा रही है.
बहरहाल, कुल मिलाकर भारत में आज शोध की स्थिति पीठ थपथपाने वाली नहीं कही जा सकती. शिक्षा के निरंतर विकास और उसे समाजोपयोगी बनाने के लिए ये बेहद ज़रूरी है कि छात्र और शिक्षक दोनों की अनुसंधान के प्रति सोच ईमानदार हो और वो विषय में कुछ नया जोड़ने के उद्देश्य से ही इस दिशा में आगे बढ़ें.
शोध महज़ शोध की औपचारिकता के लिए न हो बल्कि उससे वैश्विक स्तर पर अनुशासन को गति मिले. इन सबके लिए सबसे ज़रूरी है नीति नियंताओं की नीयत का साफ़ होना ताकि शोध के प्रति सरकार और लोगों की अवधारणा भी बदले और अनुसंधान से जुड़े लोगों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जा सके.

 कुलपतियों की नियुक्ति

साल 1947 में पूरे भारत में कुल 27 विश्वविद्यालय हुआ करते थे. अब उनकी संख्या बढ़ कर 560 के पार पहुंच चुकी है. लेकिन हर निष्पक्ष विश्लेषक की राय है कि इन सालों में भारतीय विश्वविद्यालयों की संख्या जरूर बढ़ी लेकिन कुलपतियों के स्तर में भारी गिरावट आई.
आजकल सर आशुतोष मुखर्जी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सीआर रेड्डी और लक्ष्मणस्वामी मुदालियार के स्तर का एक भी वाइस चांसलर ढूंढने से भी नहीं मिलता.
यह कहना ग़लत न होगा कि कुलपतियों की नियुक्ति सत्ताधारी दलों के राजनीतिक हितों को साधने के लिए की जाती है. इन दिनों एक नया चलन भी देखने में आ रहा है कि वीसी के पद के लिए रिटायर्ड सैन्य या प्रशासनिक अधिकारियों को तरजीह दी जाने लगी है, ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में.

फौजियों का दबदबा 

पिछले साल लेफ़्टिनेंट जनरल ज़मीरउद्दीन शाह को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कुलपति बनाया गया.
उन्होंने एक तरह से पूरी छावनी ही विश्वविद्यालय परिसर में ला खड़ी की. उनके प्रो वाइस चांसलर रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं तो उनके रजिस्ट्रार पूर्व ग्रुप कैप्टन.
वर्ष 1996 में लेफ़्टिनेंट जनरल एमए ज़की को जामिया मिलिया इस्लामिया का कुलपति बनाया गया था.
साल 1988 के बाद जब से जामिया केंद्रीय यूनिवर्सिटी बनी है 50 फ़ीसदी कुलपति या तो सेना से आए हैं या आईएएस से.
इसी तरह 1980 से अब तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आठ कुलपति नियुक्त हुए हैं. इनमें से छह आईएएस, आईएफ़एस या सेना से हैं.
आज़ादी से अब तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अब तक सिर्फ़ एक सिविल सर्वेंट को कुलपति बनाया गया है और वो थे 1950 से 1956 के बीच भारत के वित्त मंत्री रहे सीडी देशमुख.
विश्वभारती विश्वविद्यालय में सिर्फ़ एक बार ग़ैर शिक्षाविद को कुलपति बनाया गया था. वो थे भारत के पांचवें मुख्य न्यायायाधीश एसआर दास.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अब तक किसी आईएएस या जनरल को कुलपति नहीं बनाया गया.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति हैं लेफ़्टिनेंट जनरल ज़मीरउद्दीन शाह.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी शुरुआती सालों में दो राजनयिकों जी पार्थसारथी और केआर नारायणन को छोड़ दिया जाए तो अब तक शिक्षाविद् ही कुलपति का पद संभालते आए हैं.
केंद्रीय विश्वविद्यालयों की बात छोड़ दी जाए तो राज्यों में कुलपतियों की नियुक्ति स्कैंडल बन कर रह गई है.
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल कमेटी दोनों ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के योग्य नहीं समझा जाएगा अगर उसका नाम इस पद के लिए उपयुक्त राष्ट्रीय रजिस्ट्री में नहीं होगा.
इस रजिस्ट्री को उच्चतर शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग (एनसीएचईआर) की देखरेख में रखा जाएगा और वो हर बार जगह खाली होने पर पांच नामों की सिफ़ारिश करेगा.
इस बीच राज्य सरकारों ने इस मुहिम की यह कह कर आलोचना की है कि इससे उनकी स्वायत्ता का हनन होता है.
मलेशिया और हांगकांग जैसे देशों में कुलपति की नियुक्ति विश्वविद्यालय काउंसिल करती है.
ऑक्सफ़र्ड और केंब्रिज विश्वविद्यालयों में भी वाइस चांसलर को विश्वविद्यालय काउंसिल चुनती है जहाँ सरकार के नुमाइंदे अगर होते भी हैं तो बहुत कम संख्या में.
ऑक्सफ़र्ड में अभी तक परंपरा थी कि कुलपति विश्वविद्यालय के भीतर से ही चुना जाता है. वर्ष 2004 में पहली बार जॉन वुड ऐसे कुलपति बने जो ऑक्सफ़र्ड से बाहर के थे.
अभी कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस वर्ष के शुरू में बिहार के पूर्व राज्यपाल देवानंद कंवर के हाथों नियुक्त किए गए 9 कुलपतियों की नियुक्ति को रद्द कर दिया.
एक समय में देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे कुलपति हुआ करते थे
कुछ साल पहले भी बिहार सरकार के सतर्कता विभाग ने रांची विश्वविद्यालय के एक वीसी को विश्वविद्यालय से जुड़े 40 कॉलेजों में अयोग्य लोगों को नियुक्त करने के आरोप में गिरफ़्तार किया था.
एक अन्य मामले में मधेपुरा के बीएन मंडल विश्वविद्यालय और दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के कुलपतियों को बीएड की डिग्री देने वाले जाली महाविद्यालयों को बढ़ावा देने के लिए हिरासत में लिया गया था.

जाली डिग्रियों की बिक्री: इस तरह की बहुत सी शिकायतें हैं कि वीसी के दफ़्तर रजिस्ट्रार के साथ मिल कर परीक्षा के रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ कर जाली डिग्री दे रहे हैं, ख़ास कर इंजीनियरिंग कॉलेजों में.
विश्वविद्यालय के पैसे का ग़बन: अधिकतर कुलपति बाहरी एजेंसियों से विश्वविद्यालय का ऑडिट कराने से हिचकते हैं.
नियुक्तियों और प्रवेश परीक्षा में धाँधली: कॉलेजों में नियुक्ति के रैकेट की शुरुआत अक्सर वाइस चांसलर के दफ़्तर से होती है.
फ़्रेंचाइज़ी की दुकान: अक्सर कुलपति ग़लत लोगों को फ़्रेंचाइज़ का अधिकार देते हैं जो पैसा लेकर डिप्लोमा बेचते हैं.
जाली इंजीनियरिंग डिग्री बेचने का एक मामला वर्ष 1997 में नागपुर में आया था और वहाँ के तत्कालीन कुलपति बी चोपाने को कई उच्चाधिकारियों के साथ अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
कानपुर के चंद्रशेखर आज़ाद कृषि और तकनीक विश्वविद्यालय के एक कुलपति को भी नियुक्तियों में गड़बड़ी करने के आरोप में उनके पद से हटा दिया गया था.
लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक कुलपति पर विश्वविद्यालय की ज़मीन निजी रियल स्टेट डेवेलपर्स को ट्रांसफ़र करने का आरोप लगा था.
उसी तरह महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टायम के एक पूर्व कुलपति को राज्यपाल ने आदेश दिया था कि वो बेनामी मालिकों से खरीदी गई संपत्ति के लिए दी गई अधिक कीमत की भरपाई अपने वेतन से करें.

एक अध्ययन के अनुसार भारत के 171 सरकारी विश्वविद्यालयों में से एक तिहाई के कुलपतियों के पास पीएचडी डिग्री नहीं है और उनमें से कई के पास तो आवश्यक शैक्षणिक योग्यता भी नहीं हैं.
वर्ष 1964 में कोठारी आयोग ने सिफ़ारिश की थी कि सामान्य तौर पर कुलपति एक ''जाना माना शिक्षाविद् या प्रतिष्ठित अध्येता होगा अगर कहीं अपवाद की ज़रूरत पड़ती भी है तो इस मौके का इस्तेमाल उन लोगों को पद बांटने के लिए नहीं करना चाहिए जो इस शर्तों को पूरा नहीं करते."
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि उस रिपोर्ट के आने के पांच दशक बाद अधिकतर उन्हीं लोगों को विश्वविद्यालयों के ऊँचे पदों के लिए चुना जा रहा है जिनके तार शिक्षा ‘माफ़िया’ से जुड़े हुए हैं.

अब जरुरत है सरकार और आम आदमी के सम्मिलित प्रयास से इस समस्या का समाधान निकलने की।  




Sunday, 10 November 2013

भारत जो जर्मन भाषा कि नहीं हिटलर कि ज़रूरत है



केंद्रीय विद्यालय  में छात्रों को संस्कृत या जर्मन भाषा में से किसे एक का चुनाव करने का विकल्प दिया गया है इस मामले को ले कर  संस्कृत  शिक्षक संघ और  केंद्रीय विद्यालय  संघ के बीच में वैचारिक मतभेद हो गया है.
जहाँ केंद्रीय विद्यालय  संघ का दावा है इससे  छात्रों में विदेशी भाषा के प्रति रुझान बनेगा और उनके लिए विदेशों में काम  करने कि सम्भावना में भी इजाफा होगा  वहीँ संस्कृत  शिक्षक संघ का कहना है कि विदेशी भाषा को  संस्कृत  कि कीमत पर  प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये।
वैसे भी भारत में भाषा को ले कर  ये  पहला विवाद नहीं है इस तरह के विवाद आजादी के समय से ही  होते रहे हैं . देश में ही इतनी विभान्ता है कि अभी तक हिंदी को राष्ट्रीय  भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है जबकि आधे से ज्यदा हिंदुस्तान इस भाषा को समझ सकता है और बोल  सकता है।
ये तो मुद्दे से हट कर बात हो गई अगर अभी मुद्दे की बात कि जाय तो ये बात पता चलती है कि भारत कि आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति  की धीमी गति का प्रमुख कारण है कौशल निकास (ब्रेन ड्रेन ) और  कौशल निकास के केंद्र में  इस  विदेशी भाषा और संस्कृति के प्रति युवाओं का बढ़ता रुझान ही प्रमुख  कारण है.
ये बात सही है कि भारत में इंग्लिश के प्रसार के कारण  युवाओं को बी पी ओ  में काम तो मिल गाय पर इस काम का देश कि अर्थव्यस्था में ना ही कोई महत्वपूर्ण  योगदान है और ना ही इसका कोई भविष्य ही है. भारत में सस्ती और अच्छी शिक्षा प्राप्त कर के विदेश में अच्छी नौकरी पाना ही सब का लक्ष्य  बन गया है।  इस विषय पर भारत सरकार सचेत तो  हुई  है और विदेश से भारत के कौशल को वापस लाने का  प्रयास भी  किया है और दूसरी तरफ  कौशल के बाहर जाने में  योगदान भी दिया है.
केंद्रीय विद्यालय  में जो मामला उठा है वो फिलहाल न्ययालय में लंबित है पर  देश में इस बात को लेकर  काफी बहस शुरू हो गई है  जो संस्कृत के समर्थक है उन्हें  रूढ़ीवादी  कहा जा रहा है और जो जर्मन के समर्थक है वो प्रगतिवादी है. अब पता नहीं जर्मन के समर्थन से कोई प्रगतिवादी कैसे हो सकता है पर  ये सच है  कि इस देश में जो कोई भी रास्ट्रवाद कि बात करता है वो रूढ़ीवादी होता है.
बच्चों के अभिवावक  भी इस बात को ले कर काफी खुश हैं कि उनके बच्चों को संस्कृत के बजाय अब विदेशी भाषा सिखने को मिलेगी । ये बात ठीक है के बच्चों को जर्मन सिखाई जाए पर ये ज्ञान हमर देश में क्लासकिल घोषित कि जा चुकी और दुनिया कि पुरानी  भाषा में से एक संस्कृत की बली दे कर  नहीं।  वैसे भी देश में संस्कृत बोलने वालों का प्रतिशत काफी कम हो चुका है लगभग न के बराबर और अगर 1000  केंद्रीय विद्यालय में संस्कृत के स्थान पर कोई और भाषा लाई जाती है तो संस्कृत समझने वालों कि संख्या भी  एक दिन यही होगी।
ये बात तो शायद सभी को पता होगी कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने मिल कर जर्मनी के कई महत्वपूर्ण खनिज और औद्योगिक प्रदशों पर कब्ज़ा कर लिया और जर्मन और उस देश के लोगों पर कई प्रकार के प्रतिबंद लगा दिया गया था कि अब जर्मनी न ही अपनी सेना का विस्तार कर सकेगा  और न ही नए  हथीयार  का उत्पादन ही कर सकेगा। ये  समझौता किसे भी देश प्रेमी और देश भक्त आदमी के लिए बहुत ही निराशा पूर्ण रहेगा इसका अंदाजा इस बात से ही लगया जा सकता है कि समझोता जबरजस्ती  और जर्मन लोगों कि भावना को चोट पहुचाने वाला था और इस पर हस्ताछर करने वाले मंत्री ने अपने पद से स्तीफा दे दिया जैसा भारत और पाकिस्तान के बीच हुऐ 1965 के समझोते के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने दे दिया था।
सेना में अपनी सेवा देने के बाद जब हिटलर ने 2 अगस्त 1934 को जर्मनी के चांसलर के रूप में पद ग्रहण किया तो उसने सबसे पहले वर्साय कि संधि को नाकारा और जर्मन सेना तथा तकनीकी के विस्तार की रूपरेखा बनाई और उसे लागु किया।  आज भले ही पूरी दुनिया उसे दूसरे  विश्व युद्ध के लिए जिम्मेदार मानती हो पर इस एक बात के इतर भी एक सच है और वो ये है कि हिटलर ने इतने कम समय में अपने देश को एक बार फिर से एक विश्व शक्ति के  रूप में उभार दिया और जर्मन को फिर से एक बार महा शक्ति का रूप दिया।  ये बात सही है के हिटलर के इस कदम से दुनिया में हथियारों कि होड़  बढ़ गई पर  ये इस  बात को इंगित करता है कि इच्छा शक्ति से सब सम्भव है और हिटलर ने यही किया।
जर्मन वैज्ञानिकों ने दुनिया कि सबसे पहली राइफल gewehr  43 बनाई,  इसके अलावां sturngewehr  44,  mp40 सब मशीन गन भी प्रमुख है जो उस समय से काफी आधुनिक थी।  जर्मन लोगों द्वारा बनाया गया टैंक tiger 2 सबसे आधुनिक था।  जर्मन वैज्ञानिकों ने 1944 में दुनिया का सबसे पहला जेट विमान बनाया  messerschmitt me 262. जर्मन  वैज्ञानिकों ने दुनिया का सबसे पहली क्रूज मिसाइल V -1 बनाई तथा राकेट चालित दुनिया कि पहली बैलिस्टिक मिसाइल भी जर्मन वैज्ञानिकों ने ही इज़ाद की। युद्ध के समय इस बात कि चर्चा थी कि हिटलर कि सेना ने कोई खतरनाक बम बना लिया है  पर ये बात कितनी सच या झूठ थी ये न पता लग पाया पर युद्ध के बाद अमेरिका ने जर्मन वैज्ञानिकों को अमेरिका कि प्रयोगशालाओं में काम पे लगा दिया और उन्ही वैज्ञानिकों ने आज अमेरिका को विश्व शक्ति बना दिया है।
इन सब खोजों के पहले कि एक बात जिस पर किसी  देश या  लोगों का ध्यान नहीं जाता है वो ये है कि  हिटलर प्राचीन पुस्तकों और आर्य नस्ल कि सर्वोचता में बहुत यकीं रखता था हिटलर  ने चांसलर बनाने के बाद पुरे विश्व में उपलबध प्राचीन ग्रंथो का अनुवाद कराया और उसने इन पुस्तकों का अनुवाद एतहासिक या धार्मिक रूप से करने क लिए नहीं किया था बल्कि इन किताबों का इस्तेमाल उसने  वैज्ञानिक पुस्तक के रूप में किया था।  इन प्राचीन पुस्तकों में सबसे जयादा महावत हिटलर ने भारत के संस्कृत ग्रंथों को दिया उसका मानना था कि वेदों अदि ग्रंथों कि रचना आर्यों ने कि है और वो जर्मनी के मूल निवासी थे कहना न होगा कि  जर्मनी को जो भी ज्ञान  मिला वो इन ग्रंथों से ही मिला था जिसमे संस्कृत कि प्रमुख भूमिका है।
ये बात इस बात कि तरफ इशारा करती है कि भारत में संस्कृत कि कीमत पर जर्मन भाषा का विकास नहीं करना चाहिए।