केंद्रीय विद्यालय में छात्रों को संस्कृत या जर्मन भाषा में से किसे एक का चुनाव करने का विकल्प दिया गया है इस मामले को ले कर संस्कृत शिक्षक संघ और केंद्रीय विद्यालय संघ के बीच में वैचारिक मतभेद हो गया है.
जहाँ केंद्रीय विद्यालय संघ का दावा है इससे छात्रों में विदेशी भाषा के प्रति रुझान बनेगा और उनके लिए विदेशों में काम करने कि सम्भावना में भी इजाफा होगा वहीँ संस्कृत शिक्षक संघ का कहना है कि विदेशी भाषा को संस्कृत कि कीमत पर प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये।
वैसे भी भारत में भाषा को ले कर ये पहला विवाद नहीं है इस तरह के विवाद आजादी के समय से ही होते रहे हैं . देश में ही इतनी विभान्ता है कि अभी तक हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है जबकि आधे से ज्यदा हिंदुस्तान इस भाषा को समझ सकता है और बोल सकता है।
ये तो मुद्दे से हट कर बात हो गई अगर अभी मुद्दे की बात कि जाय तो ये बात पता चलती है कि भारत कि आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति की धीमी गति का प्रमुख कारण है कौशल निकास (ब्रेन ड्रेन ) और कौशल निकास के केंद्र में इस विदेशी भाषा और संस्कृति के प्रति युवाओं का बढ़ता रुझान ही प्रमुख कारण है.
ये बात सही है कि भारत में इंग्लिश के प्रसार के कारण युवाओं को बी पी ओ में काम तो मिल गाय पर इस काम का देश कि अर्थव्यस्था में ना ही कोई महत्वपूर्ण योगदान है और ना ही इसका कोई भविष्य ही है. भारत में सस्ती और अच्छी शिक्षा प्राप्त कर के विदेश में अच्छी नौकरी पाना ही सब का लक्ष्य बन गया है। इस विषय पर भारत सरकार सचेत तो हुई है और विदेश से भारत के कौशल को वापस लाने का प्रयास भी किया है और दूसरी तरफ कौशल के बाहर जाने में योगदान भी दिया है.
केंद्रीय विद्यालय में जो मामला उठा है वो फिलहाल न्ययालय में लंबित है पर देश में इस बात को लेकर काफी बहस शुरू हो गई है जो संस्कृत के समर्थक है उन्हें रूढ़ीवादी कहा जा रहा है और जो जर्मन के समर्थक है वो प्रगतिवादी है. अब पता नहीं जर्मन के समर्थन से कोई प्रगतिवादी कैसे हो सकता है पर ये सच है कि इस देश में जो कोई भी रास्ट्रवाद कि बात करता है वो रूढ़ीवादी होता है.
बच्चों के अभिवावक भी इस बात को ले कर काफी खुश हैं कि उनके बच्चों को संस्कृत के बजाय अब विदेशी भाषा सिखने को मिलेगी । ये बात ठीक है के बच्चों को जर्मन सिखाई जाए पर ये ज्ञान हमर देश में क्लासकिल घोषित कि जा चुकी और दुनिया कि पुरानी भाषा में से एक संस्कृत की बली दे कर नहीं। वैसे भी देश में संस्कृत बोलने वालों का प्रतिशत काफी कम हो चुका है लगभग न के बराबर और अगर 1000 केंद्रीय विद्यालय में संस्कृत के स्थान पर कोई और भाषा लाई जाती है तो संस्कृत समझने वालों कि संख्या भी एक दिन यही होगी।
ये बात तो शायद सभी को पता होगी कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने मिल कर जर्मनी के कई महत्वपूर्ण खनिज और औद्योगिक प्रदशों पर कब्ज़ा कर लिया और जर्मन और उस देश के लोगों पर कई प्रकार के प्रतिबंद लगा दिया गया था कि अब जर्मनी न ही अपनी सेना का विस्तार कर सकेगा और न ही नए हथीयार का उत्पादन ही कर सकेगा। ये समझौता किसे भी देश प्रेमी और देश भक्त आदमी के लिए बहुत ही निराशा पूर्ण रहेगा इसका अंदाजा इस बात से ही लगया जा सकता है कि समझोता जबरजस्ती और जर्मन लोगों कि भावना को चोट पहुचाने वाला था और इस पर हस्ताछर करने वाले मंत्री ने अपने पद से स्तीफा दे दिया जैसा भारत और पाकिस्तान के बीच हुऐ 1965 के समझोते के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने दे दिया था।
सेना में अपनी सेवा देने के बाद जब हिटलर ने 2 अगस्त 1934 को जर्मनी के चांसलर के रूप में पद ग्रहण किया तो उसने सबसे पहले वर्साय कि संधि को नाकारा और जर्मन सेना तथा तकनीकी के विस्तार की रूपरेखा बनाई और उसे लागु किया। आज भले ही पूरी दुनिया उसे दूसरे विश्व युद्ध के लिए जिम्मेदार मानती हो पर इस एक बात के इतर भी एक सच है और वो ये है कि हिटलर ने इतने कम समय में अपने देश को एक बार फिर से एक विश्व शक्ति के रूप में उभार दिया और जर्मन को फिर से एक बार महा शक्ति का रूप दिया। ये बात सही है के हिटलर के इस कदम से दुनिया में हथियारों कि होड़ बढ़ गई पर ये इस बात को इंगित करता है कि इच्छा शक्ति से सब सम्भव है और हिटलर ने यही किया।
जर्मन वैज्ञानिकों ने दुनिया कि सबसे पहली राइफल gewehr 43 बनाई, इसके अलावां sturngewehr 44, mp40 सब मशीन गन भी प्रमुख है जो उस समय से काफी आधुनिक थी। जर्मन लोगों द्वारा बनाया गया टैंक tiger 2 सबसे आधुनिक था। जर्मन वैज्ञानिकों ने 1944 में दुनिया का सबसे पहला जेट विमान बनाया messerschmitt me 262. जर्मन वैज्ञानिकों ने दुनिया का सबसे पहली क्रूज मिसाइल V -1 बनाई तथा राकेट चालित दुनिया कि पहली बैलिस्टिक मिसाइल भी जर्मन वैज्ञानिकों ने ही इज़ाद की। युद्ध के समय इस बात कि चर्चा थी कि हिटलर कि सेना ने कोई खतरनाक बम बना लिया है पर ये बात कितनी सच या झूठ थी ये न पता लग पाया पर युद्ध के बाद अमेरिका ने जर्मन वैज्ञानिकों को अमेरिका कि प्रयोगशालाओं में काम पे लगा दिया और उन्ही वैज्ञानिकों ने आज अमेरिका को विश्व शक्ति बना दिया है।
इन सब खोजों के पहले कि एक बात जिस पर किसी देश या लोगों का ध्यान नहीं जाता है वो ये है कि हिटलर प्राचीन पुस्तकों और आर्य नस्ल कि सर्वोचता में बहुत यकीं रखता था हिटलर ने चांसलर बनाने के बाद पुरे विश्व में उपलबध प्राचीन ग्रंथो का अनुवाद कराया और उसने इन पुस्तकों का अनुवाद एतहासिक या धार्मिक रूप से करने क लिए नहीं किया था बल्कि इन किताबों का इस्तेमाल उसने वैज्ञानिक पुस्तक के रूप में किया था। इन प्राचीन पुस्तकों में सबसे जयादा महावत हिटलर ने भारत के संस्कृत ग्रंथों को दिया उसका मानना था कि वेदों अदि ग्रंथों कि रचना आर्यों ने कि है और वो जर्मनी के मूल निवासी थे कहना न होगा कि जर्मनी को जो भी ज्ञान मिला वो इन ग्रंथों से ही मिला था जिसमे संस्कृत कि प्रमुख भूमिका है।
ये बात इस बात कि तरफ इशारा करती है कि भारत में संस्कृत कि कीमत पर जर्मन भाषा का विकास नहीं करना चाहिए।
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